Friday, August 26, 2011

नभ दूर बहुत है मुझसे


नभ
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नभ दूर बहुत है मुझसे 
पर  क्यों लगता प्यारा सबसे 
कुछ नाता इसका ज़रूर कहीं
मुझसे  या मेरे रब से  


कभी उसके विशालता से स्तंभित हूँ 
कभी ताप से उसके दण्डित हूँ
कभी  सन्नाटे में उसके खोया हूँ
सिसकी भर कभी उसके काँधे रोया हूँ
 ................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....


जागा  हूँ कई बार उसके हलचल 
जाना पहचाना उसका हर एक पल
कभी चाँद लगता नभ सर पर
तो कभी तारे ओढ़े चमके कल कल
 ................नभ दूर बहुत  हैं मुझसे .....

कभी  थक कर  जीवन रण से
हारा (तन मन), बना नभ को चादर ओढा
और मंद मुस्काते  पवन के संग कभी
प्रेम के रंग में मैंने उसको संग जोड़ा
 ................नभ दूर बहुत  हैं मुझसे .....


जब बन के बरसे वह झर झर 
हर्षित होताकभी लगता मुझको डर
स्वर्णिम बसंत या कडवी पतझर
वह नापे मेरा जैसे  हर  एक प्रहर
 ................नभ दूर बहुत  हैं मुझसे .....

कहीं लगा की लो ... अब मिला उसमे थल
कभी लगता नभ देगा मुझको हर एक हल
और जब बीता मुझपर संकट का बादल
डांटा नभ को बोलाजल्दी लाओ कल
 ................नभ दूर बहुत  हैं मुझसे .....

कभी लगे वो लड़ता बादल से
जैसे मन मेरा उलझे विचारो से
कभी लगा की बादल खेला उसमे
जैसे शिशु क्रीडा करता  माँ के आँचल में
 ................नभ दूर बहुत  हैं मुझसे .....

जैसे नभ में माटीपवन , अग्नि , जल
मुझ में भी तो यही रहती भर भर
मैं शिशु से अब तो प्रौढ़ हुआ
अब कितना बढेगा यह हर पल?
 ................नभ दूर बहुत  हैं मुझसे .

कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी

कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी
की दोस्तों के छाँव के सेहरे से
अपने फन को सजाता हूँ
और भींगते घने उस पेड़ के नीचे
खिल खिला कर बच्चो को हँसता हूँ
जो राही रुक चुके है उनको
बढ़ने  का नशा बताता हूँ
ग़म की कुछ तंग गलियों में
हँसी  के ठहाको को फसांता   हूँ
 ..............कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी

कहीं कुछ कठिन चेहरों पर
फिसलाता हूँ हंसी  ऐसी
की जैसे सर-सर फिसलती हो
लता कुछ पेड़ से लिपटी
कहीं थोड़ी अनजान  गलियों में
पुराने धुन  सजाता हूँ
जहाँ सोयी थी ख़ामोशी
 जगा कर साज आता हूँ
 ..............कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी

प्रस्तुत कविता हमें हमारे मित्र विश्वनाथ ने भेजी हैं |