हट जा मूरख कह जिसको पाठशाला से निकला था
माँ की छाया मैं चमका एडिसन , रोशन वि श्व कर डाला था
माँ की छाया मैं चमका एडिसन , रोशन वि
अक्षर ज्ञान मिलता है माँ से ,
मूढ़ बनता विज्ञानी माँ से
हट हंसी कोप या मनमानी
जीवन की पहली शैतानी माँ से
वाणी तुतलाती सजती भाषा में माँ से
गिरते कदम संभलते- दौड़े माँ से
लो शांत हुआ पेट जब कुछ खा के है अन्न पूर्ण की कृपा माँ भी से
जीवन दोपहरी को जो बांध चुकी
है निर्मल विजयी ममता उसकी छैया
पाकर कर माँ को यह लगता जैसे
संभली संवरी जीवन नैय्या
है प्रेम की परिभाषा माँ से
सदा छाँव उसके अंचल
हो भाव किसी भी रस में डूबे
बहे हृदय से उसके बनके प्रीतीकर
माँ का अनुपम प्रेम जब सजता
पत्थर मूरत बन मुसकाता
बदनाम यहाँ पिता का हर एक लाल
माँ का हर बच्चा बेमिसाल
आचार बाजारू, बाजारू हैं ***
बस खा लिया और भूल गए
पर माँ के हाथ का वोह अचार
महकती है अब भी हैं उँगलियों में
श्रृष्टि में तभी माँ सी ऊँची सीढ़ी
कोई नर नहीं चढ़ पाता है
बनता वोह दुश्मन, दोस्त, यार
पर माँ सा न कभी बन पाता है
सच है ईश्वर माँ सा होगा
निर्मल निश्चल नित नरम नरम
तभी भूलता वोह हमारे कठिन करम
हँसते हँसते बिना किसी शर्म
- विश्वानि , फ़रवरी ११, २०११
सुन्दर अभिव्यक्ति!
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