कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी
की दोस्तों के छाँव के सेहरे से
अपने फन को सजाता हूँ
और भींगते घने उस पेड़ के नीचे खिल खिला कर बच्चो को हँसता हूँ
जो राही रुक चुके है उनको
बढ़ने का नशा बताता हूँ ग़म की कुछ तंग गलियों में
हँसी के ठहाको को फसांता हूँ
..............कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी
कहीं कुछ कठिन चेहरों पर
फिसलाता हूँ हंसी ऐसी
की जैसे सर-सर फिसलती हो
लता कुछ पेड़ से लिपटी
कहीं थोड़ी अनजान गलियों में
पुराने धुन सजाता हूँ
जहाँ सोयी थी ख़ामोशी
जगा कर साज आता हूँ
..............कुछ ऐसे चल रही है जिंदगी
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