नभ
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नभ दूर बहुत है मुझसे
पर क्यों लगता प्यारा सबसे
कुछ नाता इसका ज़रूर कहीं मुझसे या मेरे रब से
कभी उसके विशालता से स्तंभित हूँ
कभी ताप से उसके दण्डित हूँ
कभी सन्नाटे में उसके खोया हूँ
सिसकी भर कभी उसके काँधे रोया हूँ
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....
जागा हूँ कई बार उसके हलचल
जाना पहचाना उसका हर एक पल
कभी चाँद लगता नभ सर पर
तो कभी तारे ओढ़े चमके कल कल
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....
हारा (तन मन), बना नभ को चादर ओढा
और मंद मुस्काते पवन के संग कभी
प्रेम के रंग में मैंने उसको संग जोड़ा
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....
जब बन के बरसे वह झर झर
हर्षित होता, कभी लगता मुझको डर
स्वर्णिम बसंत या कडवी पतझर वह नापे मेरा जैसे हर एक प्रहर
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....
कहीं लगा की लो ... अब मिला उसमे थल
कभी लगता नभ देगा मुझको हर एक हल और जब बीता मुझपर संकट का बादल
डांटा नभ को बोला “जल्दी लाओ कल “
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....
जैसे मन मेरा उलझे विचारो से
कभी लगा की बादल खेला उसमे
जैसे शिशु क्रीडा करता माँ के आँचल में
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .....
जैसे नभ में माटी, पवन , अग्नि , जल
मुझ में भी तो यही रहती भर भर
मैं शिशु से अब तो प्रौढ़ हुआ
अब कितना बढेगा यह हर पल?
................नभ दूर बहुत हैं मुझसे .
बहुत अच्छी रचना।
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