Wednesday, February 23, 2011

जिसको पाठशाला से निकला था

हट  जा  मूरख  कह  जिसको  पाठशाला  से  निकला  था 
माँ  की  छाया मैं चमका एडिसन , रोशन विश्व कर डाला था 

अक्षर  ज्ञान  मिलता  है  माँ  से ,
मूढ़  बनता  विज्ञानी माँ से
हट हंसी कोप या   मनमानी 
जीवन की पहली शैतानी माँ से


वाणी तुतलाती सजती भाषा में माँ  से
गिरते कदम संभलते- दौड़े   माँ से  
लो शांत हुआ पेट जब कुछ खा के
है अन्न पूर्ण की कृपा माँ भी से

जीवन दोपहरी  को जो बांध चुकी
है  निर्मल विजयी  ममता उसकी छैया
पाकर कर माँ को यह लगता जैसे 
संभली संवरी जीवन नैय्या 


 
है  प्रेम   की परिभाषा माँ से
सदा  छाँव  उसके अंचल
हो भाव किसी भी रस में  डूबे
बहे  हृदय से उसके बनके प्रीतीकर


माँ का अनुपम प्रेम जब सजता
पत्थर मूरत बन मुसकाता
बदनाम यहाँ पिता का हर एक लाल
माँ का हर बच्चा  बेमिसाल


आचार बाजारू,  बाजारू  हैं ***
बस खा लिया और भूल गए 
पर माँ के हाथ का वोह अचार 
महकती है अब भी हैं उँगलियों में 

श्रृष्टि  में तभी माँ सी ऊँची सीढ़ी 
कोई नर नहीं चढ़ पाता है 
बनता वोह दुश्मन, दोस्त, यार 
पर माँ सा कभी बन पाता है 

सच है ईश्वर माँ सा होगा 
निर्मल निश्चल नित नरम नरम
तभी भूलता वोह हमारे कठिन करम
हँसते हँसते बिना किसी शर्म

 - विश्वानि , फ़रवरी ११, २०११ 


कविता कर पाता

है कौन यहाँ जिसके दिल में दुःख की छाप   नहीं
सच कहता हूँ दोस्त उसी ह्रदय में बस कविता की थाप नहीं !

मन जब दुःख  की भट्टी  में  जल भुन कर स्वर्ण सा गहराता है
कवी  नयन अश्रु पीकर, लब  मुस्कान सजाये कविता कर जाता है !

दुःख ही वोह गाढ़ी स्याही है जिसमे कविता रंग पाता है
है कौन यहाँ जो सुख में कभी सस्वर कविता कर पाता है ?


--- विश्वानि, फ़रवरी २३, २०११

Wednesday, February 9, 2011

माँ का आशीर्वाद

माँ से बोला था आज कविता में  जब तक   दोगी  आशीर्वाद
मौन रहेगा दिल मेरा, बोलेगा सुप्रभात या धन्य वाद
भोली माँ  ने  करुणा कर  झट सुन ली मूरख की फ़रियाद
हँसकर बोली
मैं माँ हूँ ,तू बुद्धू बालक मेराकभी   माँ भूले  बालक को -  यह रखना याद
छेड़  के मेरे मन के कठिन तार, माँ बोली - " लिख मैं   देती तुझको वचन ये चार "  
उड़े मन पतंग बन करसजे फूल, हर जगह बहार
लो आया मन में मौज लिए वसंत पंचमी  का त्यौहार

हे माँ शारदे  मूढ़ मलिन मैं बालक तेरा 
जानू  तेरी पूजा, अर्चना, कथा या सार
अर्ध ज्ञान में हास्य, व्यंग और  अलंकार सजाये
लो पहनो मेरी कविताओं का हार  !

ज्ञान कला की देवी तू माँ
तुझ बिन  मूरख , नीरस ये संसार
नतमस्तक  रहे तेरे चरणों में सदा माँ
अनिल ,मनोज, विश्वानि और तुलसी अटवाल !

यह  कविता हमें हमारे मित्र विश्वनाथ जी ने बसंत पंचमी के  उपलक्ष्य में भेजी  |