Friday, November 27, 2009

आलू संग बैठे गाज़र

आलू संग एंट के बैठे था गाज़र, लेके नमक का चस्का
जीरा अलग करने को आया, पर यह खेल न तथा उसके बस का !

चने बह कर डूब रहे थे, सब बोले "छोले! छोले "
भूल सब गिला और शिकवा , चावल संग वो एक थाल में डोले

माखन से भींगी थी रोटी , गोल गरम नरम सी
परत परत में प्रेम समायी - "मैं खाने की रानी हूँ" - बैठी थाल मैं इसी भरम से !

प्याज़ भुनी थी भूरी सी , बलखाती, डोलती रस में
पनीर भी डूबा उसके प्यार में खाके प्रेम की कसमे !

इन सब का रंग देख जमी और ढीठ दही ने भी की मनमानी
हरे धनिया की कर के सवारी उच्छ्ली उसकी निर्मल जवानी !

इन पूरब के व्यंजन को देख पश्चिम में हुआ हडबडाहट
वो घबराकर दौड़ के लाये फलो से मिश्रित कस्टर्ड !

मीठी सौंफ ने थी ठण्ड में ओढ़ी हरी हरी सी चादर
चीनी भी उसको जा मिली गले, किया उसके प्रेम का आदर !

सच है मर्द के दिल के द्वार , जब जब सजते सुस्वादु व्यंजन
पाती है नारी वोह अचल प्रेम , बन माँ, बहना , और तन मन !

---- विश्वानि, दोपहर ३ के आस पास
इस कविता को विश्वनाथजी ने भेजा

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